Wednesday, October 1, 2008

इनटू दी वाइल्ड - Into the Wild !

इनटू दी वाइल्ड
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हाल ही में मैंने यह मूवी देखी | बहुत ही अजीब सा प्लाट था | एक भला चंगा मानस सोचता है की अलास्का के जंगल में बिना किसी "मटेरिअल रिसोर्स" के रहा जाए ! भइया , हम में से शायद ही कोई ऐसा सोचे , बल्कि ऐसी नौबत कहीं आ जाए तो वहां से कैसे बचा जाए हम तो यूँ सोचें !
पर इस मूवी को देख कर फिर मैंने सोचा की क्या वाकई हम लोग इस वस्तुवाद के इतने अधीन हो गए हैं की प्रकृति के साथ अकेले दो पल नहीं रह सकते ? क्या हम वास्तव में "materialistic" हो गए हैं ?

मेरा भी बहुत मन करता है ..कभी ...कभी ... की दुनिया में रहूँ.. इससे अलग हो कर | वो कहते हैं ना- जैसे कमल में पानी की बूँद रहती है- उसी में.. किंतु अलग सी | हम सब अपने आप से कितनी सारी 'चीज़ें' बाँध लेते हैं ना? मेरा घर , मेरे बच्चे , मेरा नाम , मेरा पैसा, मेरी गाड़ी, मेरा परिवार, मेरा ,मेरा ,मेरा !
मैं इस "मैं" से हट कर कुछ दिन गुजारना चाहती हूँ | क्या अपने ही नाम को दूर रख कर मैं इस दुनिया के किसी कोने में रह पाऊंगी? इंडिया जाना चाहती हूँ | सारा देश घूमना चाहती हूँ -मन्दिर, मस्जिद,वन, उपवन, देश, नगर, शहर, पहाड़, पर्वत, सब छूना चाहती हूँ | लेकिन एक विदेशी पर्यटक के जैसे नहीं , सिर्फ़ एक कौतुक इंसान की तरह | बिना किसी नाम या पहचान के रहना चाहती हूँ कुछ दिन | सब रिश्तों से दूर , सब अनुबंधों से परे |
क्या इतना कठिन है ख़ुद से हट कर ख़ुद को देख पाना ?

10 comments:

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

rishton key bina jeevan ki sarthakta nahi hai.

कृषि समाधान said...

Greetings to You
Read teh blog. You write very well.
Please do visit Meherabad, Ahmed Nagar (Maharashtra)Near Shirdi.
Meherabad is Avtar Meher Baba's place. His Samadhi is here.
he is the last Avtar of this age.
You can also visit trustmeher.com for more information because you want to get rid of 'I' where 'I' is a desire. Meher Baba has given a divine mantra: Desire for Desirelessness!!!
Jai Baba
Dr. Chandrajiit Singh

प्रदीप मानोरिया said...

सत्य आलेख बधाई आपका चिठ्ठा जगत में स्वागत है निरंतरता की चाहत है
बधाई स्वीकारें मेरे ब्लॉग पर भी पधारें सार्थक पहल

शोभा said...

अच्छा लिखा है आपने. चिटठा जगत मैं आपका स्वागत है.

श्यामल सुमन said...

अर्चना जी,

अर्चना जी,

क्या इतना कठिन है ख़ुद से हट कर ख़ुद को देख पाना ?

जी हाँ। खुद को जानना सचमुच एक दुष्कर कार्य है। लोग पूरी जिन्दगी यही कार्य करते रहते है और बिडले को ही सफलता मिलती है। अपनी बात मैं यूँ कहूँ-

मन-दर्पण को जब-जब देखा, उलझ गई खुद की तस्वीरें।
चेहरे पे चेहरों का अंतर, याद दिलाती ये तस्वीरें।।

पात्रों सा निज- रूप सजाता, रंगमंच जाने से पहले।
प्रति पल रूप बदलता मेरा, और बदलती है तक़रीरें।।

शुभकामना।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com

Amit K Sagar said...

फ़कत; वाह;

Amit K Sagar said...

फ़कत; वाह;

Anonymous said...

"एक द्रष्टिकोण" और फिर "एक पहलू" पढ़कर उत्सुक हुआ और आपके ब्लॉग पर आया. पोस्ट तो नहीं पढ़ी लेकिन "मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़!" quotation इतना अच्छा लगी कि comment लिखने से अपने आपक को रोक न सका - हार्दिक शुभकामनाएं.

संजय पाराशर said...

कभी भीड़ और शोर में मौन हो जाना , कभी सन्नाटे में शोर कर देना, कभी खुले आसमान के नीचे लेट कर चाँद -तारो को देख लेना, कभी किसी पुष्प से बतिया लेना,कभी किसी पेड़ को गले लगा लेना... कभी आधुनिक सुख -सुविधाओं की उपेक्षा कर देना... .....

Manisha said...

sirf naati ko i yeh savtantra nahi hai ki woh apne aap me rahe, agar sanyas bhi le legit to bhi woh ped paudho se janvaron se itna hi pyar karegi jitna ek maa apne bachche se, behan bhai se, patni pati se asur ek premika apne premi se karti hai...kyonki nari to naam hi hai pyaar ka