नमस्कार मित्रों,
हर कवि या लेखक की एक डायरी होती है | आपकी भी होगी, है न?
एक सहचरी की तरह साथ रहती है हमारे , हमेशा ... कहीं एक कन्धा बन जाती है, भीगने के लिए तो कहीं एक मित्र- जीवन के पदकों को झिलमिलाने के लिए ! ज्यों -ज्यों वक्त गुज़रता है , डायरी भरती रहती है | फिर इतनी भर जाती है की उसमें जगह नहीं दिखती , न अपने लिए और न ही अपनों के लिए |
.....और फिर शुरू होती है एक नई डायरी |
जाने कितनी ही यादें समेटे रहती है यह !
हर पन्ना एक एहसास होता है , किसी के लिए , बहुत सच्ची होती है ये अभिव्यक्ति, क्योंकि ये बातें हम ख़ुद से करते हैं | कोई छंद या प्रपंच नहीं होता इसमें , बहुत भोली होती है ये बातें क्योंकि इसमे सिर्फ़ भावना होती है, कोई दिखावा नहीं होता |
जाने आजकल कोई लिखता भी है या नहीं - क्या भावनाएं नहीं रहीं? या शब्द खो गए हैं ? हो सकता है अब किसी के पास वक्त नहीं रहा ? या फिर शायद लोग ख़ुद से ही अपनी सच्चाई कहते डरने लगे हैं ...... कोई जान न ले मेरे मन में क्या है , कहीं मेरी छवि टूट न जाए | क्या मैं वाकई ये सोच रही हूँ , नहीं तो ....
और वक्त कभी ऐसा भी आता है जब हम इस साथी से फिर मिलते हैं , बरसों बाद , एक नए चेहरे के साथ , एक नए मिजाज़ में, एक नए उम्र में ... उस-से मिलते हैं , ख़ुद से मिलते हैं , हँसते हैं , बहुत हँसते हैं ! और फिर स्वतः ही आखें बरस जाती हैं, जैसे प्रकृति का कोई नियम हो | बादल भारी हो तो गिर जाता है धरती पर, जो दिल भारी हो तो कहाँ गिरे ?
लेकिन ऐसा नहीं है की यह सिर्फ़ भावनाओं का घर है , इसमें साहित्य का जन्म होता है , इसीमें इतिहास वास्तविक रूप में सहेजी जाती है | चाहे वो आन्ना फ्रैंक की डायरी हो जिसने विश्व भर के लोगों को युद्ध का वह निर्मम रूप दिखाया था जो एक चौदह वर्षीया आंखों ने देखा और लिखा , या फिर पर्यटक फाह यान जिसकी लेखनी के सहारे इतिहास उस सभ्यता को जान पाया जिसे समय ने बड़ी बेरहमी से मिटा दिया था|
कौन जाने....... कल 'आपकी' डायरी इतिहास की, समय की या साहित्य की एक मिसाल बन जाए ?
सच ही तो है , रहें न रहें हम पर जो रह जायेगी वो आप रच नहीं रहे ...
आज ही मेरी अर्चना सुनिए और कलम उठाइए !
Tuesday, August 19, 2008
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5 comments:
pahali baar aapke blog par aai. aapko padhana achha laga. jari rhe.
aap apna word verification hata le taki humko tipani dene me aasani ho.
बेहतरीन आलेख.... बहुत आभार.
आपकी तरह मेरी भी है... .क्या करूँ हर साल नई होती है फ़िर भी पुरानी ही रहती है
अर्चना जी,
बहुत साफगोई से आपने अपनी बात रखी है, पढकर अच्छा लगा।
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com
बहुत बढ़िया लिखा है आपने
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